हिंदू धर्म में पितृ पक्ष का विशेष महत्व है। यह कालखंड भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन अमावस्या तक रहता है। शास्त्रों में वर्णन है कि इस पुण्य समय में पितृ देव पृथ्वी पर अपने वंशजों के समीप आते हैं और उनसे तृप्ति की अपेक्षा रखते हैं। अतः श्रद्धाभाव से किया गया तर्पण, श्राद्ध, पिंडदान और दान पितरों को शांति प्रदान करता है तथा संतति के जीवन में मंगल, आयु और समृद्धि का संचार करता है।
जो लोग पितरों का स्मरण नहीं करते, वे पितृ-दोष के कारण जीवन में बाधाओं का अनुभव करते हैं। अतः पितरों का तर्पण हमारे लिए धार्मिक कर्तव्य और आत्मिक ऋण-परिहार दोनों है।
वेद-पुराणों में वर्णन है कि जब हम पितरों को जल से तर्पण देते हैं तो वे संतुष्ट होकर आशीर्वाद प्रदान करते हैं। उनके आशीर्वाद से परिवार में शांति, संतान सुख, स्वास्थ्य और समृद्धि का वास होता है। यही कारण है कि पितृ पक्ष को आत्मिक जिम्मेदारी का पर्व माना गया है।
कुशा, कुश-पवित्री धारण हेतु, अक्षत् (चावलों के अक्षत), जौ, काले तिल, कांसा के फूल या सुगंध रहित सफेद पुष्प, शुद्ध जल (तांबे के लोटे में), पवित्र आसन, दीप, धूप, नैवेद्य आदि।
पितृ पूजा में कुशा का विशेष महत्व है; शास्त्रों में कहा गया है कि कुश-विहीन तर्पण पितरों तक नहीं पहुँचता। अतः दाहिने हाथ में कुश-पवित्री धारण कर ही आचमन एवं अर्घ्य दें।
पितृ पक्ष के प्रत्येक दिन सूर्योदय के बाद स्नान कर शुद्ध व सादे सफेद वस्त्र धारण करें। ब्रह्म मुहूर्त के पश्चात से लेकर पूर्वाह्न काल तर्पण सर्वोत्तम माना गया है। जिस दिन आपकी कुल-परंपरा की श्राद्ध तिथि आती है, उस दिन विशेष श्रद्धा से तर्पण करें। यदि तिथि का ज्ञान न हो तो पितृ पक्ष के प्रत्येक दिन या सर्व पितृ अमावस्या को संकल्पपूर्वक तर्पण किया जा सकता है।
पितरों का तर्पण कराने के लिए किसी विद्वान पंडित की सहायता लें। यदि आप स्वयं तर्पण कर रहे हैं तो प्रातः काल स्नान कर शुचिता ग्रहण करें, पूर्व दिशा में मुख करके पवित्री धारण कर लें। पितरों के निमित्त संकल्प लें,
“मैं आज (माता का नाम) नामक माता तथा (पिता का नाम) नामक पिता का (स्वयं का नाम) नामक पुत्र अपने समस्त कुल गोत्र के पितरों की प्रसन्नता एवं आशीर्वाद प्राप्ति हेतु तथा धर्म अर्थ काम मोक्ष रूपी पुरुषार्थ की प्राप्ति हेतु अपने घर में पितृ तर्पण करने का संकल्प लेता हूँ।”
इसके बाद देवों के लिए जल और अक्षत् से तर्पण करें। उसके उपरांत जल और जौ से ऋषियों के लिए तर्पण करें। अब उत्तर दिशा की तरफ मुख कर लें, जल और जौ से ही मानव तर्पण करें। सबसे अंत में दक्षिण दिशा में मुख करके बैठें, जिसमें काले तिल, जल और कास के फूल या सफेद फूल से पितरों के लिए तर्पण करें।
पूरे मन से तर्पण करने के बाद अंत में समर्पण करें और भगवान तथा पितरों का स्मरण करते हुए पूजा का समापन करें।
तर्पण के उपरांत अन्न-दान, वस्त्र-दान, दक्षिणा, तथा ब्राह्मण-भोज कराना अत्यंत पुण्यकारी है। संभव हो तो दीन-दुखियों, असहाय लोगों को भी भोजन कराएं और दान आदि दें। गौ-सेवा, विद्या-दान आदि का संकल्प लें।
शास्त्र-वचन है,
“दानं प्राधान्यम्”
अर्थात् विशेषतः पितृ पक्ष में दिया गया दान अनेक गुना फल देता है।
पितृ पक्ष हमें स्मरण कराता है कि हमारा अस्तित्व पितरों की कृपा और संचित पुण्य का प्रसाद है। अतः इस पावन काल में विधि-विधान से तर्पण करें, कुश-पवित्री धारण कर “स्वधा” के साथ तिल-जल समर्पित करें और पितृ-आशीष से अपने जीवन को शांति और समृद्धि से आलोकित करें।
“पितृदेवो भव”
पितरों की वंदना ही मोक्ष-मार्ग का द्वार खोलती है।