कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी या प्रबोधन एकादशी कहा जाता है। इस दिन भगवान विष्णु अपनी योगनिद्रा से जागते हैं और इसी क्षण से सभी शुभ एवं मांगलिक कार्यों की शुरुआत होती है। यह दिन न केवल धार्मिक दृष्टि से अत्यंत शुभ माना जाता है, बल्कि इसे घर में सुख, समृद्धि और सकारात्मक ऊर्जा के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है।
देवउठनी एकादशी के अगले दिन द्वादशी तिथि पर तुलसी और शालिग्राम (भगवान विष्णु) का विवाह करना एक पवित्र परंपरा है, जिसे तुलसी विवाह के नाम से जाना जाता है। यह अनुष्ठान न केवल धार्मिक है, बल्कि इसमें प्रकृति और जीवन के प्रतीकात्मक संदेश भी निहित हैं। तुलसी माता को घर की लक्ष्मी और जीवन की ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। इस विवाह के माध्यम से हम अपने घर में सुख,
पंचांग के अनुसार इस साल द्वादशी तिथि की शुरुआत 2 नवंबर को सुबह 7 बजकर 31 मिनट पर होगी। साथ ही इस तिथि का समापन 3 नवंबर को सुबह 5 बजकर 7 मिनट पर होगा। हिन्दू धर्म के त्यौहार उदयातिथि के अनुसार मनाए जाते हैं इसलिए तुलसी विवाह 2 नवंबर को मनाया जाएगा।
तुलसी विवाह का आयोजन इसलिए भी विशेष है क्योंकि यह भगवान विष्णु के जागरण के उपरांत होता है। चार महीने की योगनिद्रा के बाद भगवान का जागरण एक नए आरंभ का संदेश देता है। इसी दिन से घर में मांगलिक कार्य और शुभ अनुष्ठान प्रारंभ किए जाते हैं। तुलसी और शालिग्राम का विवाह इस नए आरंभ को और भी पवित्र बनाता है।
तुलसी माता की पूजा से घर और परिवार में शांति, समृद्धि और स्वास्थ्य का संचार होता है। उनके पत्तों में औषधीय गुण होते हैं, जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी माने जाते हैं। तुलसी का पौधा घर में सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
शिव जी ने एक बार अपने तेज को समुद्र में फेंक दिया। इससे एक महातेजस्वी बालक का जन्म हुआ, जो बाद में जालंधर नामक दैत्यराज बना। जालंधर अपनी शक्ति और पराक्रम के लिए विख्यात था। जालंधर ने माता लक्ष्मी और देवी पार्वती को प्राप्त करने के लिए युद्ध किया, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। माता लक्ष्मी ने तो उसे भाई बना लिया जबकि देवी पार्वती ने सारी कहानी जाकर भगवान विष्णु को सुनाई। जालंधर का विवाह वृंदा से हुआ, जो अत्यंत पतिव्रता और धर्मनिष्ठ महिला थीं। वृंदा के पतिव्रत धर्म की शक्ति से जालंधर न मारा जा सकता था और न ही पराजित। जालंधर को पराजित करने के लिए वृंदा का पातिव्रत धर्म भंग करना अत्यंत आवश्यक था।
जालंधर को हराने के लिए भगवान विष्णु ने ऋषि का वेश धारण किया और वृंदा के पास गए। वृंदा ने युद्ध कर रहे अपने पति जालंधर की स्थिति जानने के लिए ऋषि से पूछा। ऋषि ने उसे दो वानर दिखाए जो जालंधर का धड़ और सिर अपने हाथों में लिए हुए थे। जालंधर को मरा हुआ देखकर वृंदा को बहुत दुःख हुआ, वो मूर्छित हो गईं। होश में आने पर वृंदा ने ऋषि रूपी भगवान से विनती की कि वह उसके पति को जीवित कर दें। ऋषि ने जालंधर को पुनर्जीवित किया और स्वयं उसके शरीर में प्रवेश कर गए। वृंदा को इस छल का आभास न हुआ। वृंदा ने जालंधर को पति का सम्मान देते हुए पतिव्रत धर्म निभाया, जिससे उसका पतिव्रत धर्म भंग हुआ और जालंधर युद्ध में पराजित हो गया।
जब यह सारी घटना का वृंदा को पता चला तब उसने भगवान विष्णु की श्राप दे दिया कि वो एक ह्रदयहीन शिला में बदल जाएंगे। जिसके बाद भगवान शालिग्राम पत्थर बन गये। भगवान के पत्थर बन जाने से ब्रम्हांड में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो गई। जिसके बाद सभी देवतागण वृंदा के पास पहुंचे और भगवान को श्राप मुक्त करने की विनती की। वृंदा ने भगवान विष्णु की श्राप मुक्त तो कर दिया। लेकिन स्वयं आत्मदाह कर लिया। जिस जगह पर उन्होंने आत्मदाह किया, उस जगह पर कुछ दिनों बाद एक तुलसी की पौधा उग आया। तब भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा, “हे वृंदा। तुम अपने सतीत्व के कारण मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो। अब तुम तुलसी के रूप में सदा मेरे साथ रहोगी।” तब से हर साल कार्तिक शुक्ल द्वादशी के दिन तुलसी-शालिग्राम विवाह का पर्व मनाया जाता है।
तुलसी विवाह के पावन अवसर पर नारायण सेवा संस्थान सभी साधकों को तुलसी विवाह में सम्मिलित होने का अवसर प्रदान कर रहा है। इच्छुक व्यक्ति संस्थान के माध्यम से खुद यजमान बनकर तुलसी विवाह कर सकते हैं। इस आयोजन में सहभागी बनकर श्रद्धा और भक्ति के साथ जीवन में मंगल और समृद्धि प्राप्त करें।
तुलसी विवाह तुलसी और शालिग्राम का यह दिव्य मिलन न केवल धार्मिक अनुशासन का प्रतीक है, बल्कि घर में सुख, शांति और समृद्धि लाने वाला अवसर भी है। इस कार्तिक मास में तुलसी विवाह का आयोजन करके अपने घर और जीवन को पवित्रता, सौभाग्य और ऊर्जा से भर दें।
इस दिव्य अवसर पर तुलसी माता की कृपा सभी के परिवारों पर बनी रहे, और लोगों का जीवन धर्म, भक्ति और सुख‑समृद्धि से परिपूर्ण हो।