भारत की पवित्र भूमि अनादि काल से ऋषि-मुनियों, देवताओं और अवतारों की लीला स्थली रही है। प्रत्येक तीर्थ अपने भीतर किसी न किसी पौराणिक कथा और दिव्य अनुभव को संजोए हुए है। ऐसी ही एक मोक्षदायिनी भूमि है गया जी, जिसे पितरों के तर्पण और श्राद्ध का सर्वोच्च स्थल माना गया है। यह वही स्थान है, जहां आकर श्राद्धकर्म करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
पुराणों में वर्णन आता है कि सतयुग में गयासुर नाम का एक असुर था। यद्यपि वह असुर कुल में जन्मा था, परंतु उसका हृदय धर्म और तपस्या से अनुप्राणित था। उसने कोलाहल पर्वत पर घोर तप किया, जिससे त्रिलोक के पालनहार भगवान विष्णु प्रसन्न हुए। प्रसन्न होकर प्रभु ने उसे वर मांगने को कहा। गयासुर ने उनसे अनोखा वरदान मांग लिया। उसने कहा, “मेरे स्पर्श मात्र से प्राणी स्वर्ग लोक को प्राप्त हों।”
भगवान विष्णु ने उसकी गहन तपस्या को देखकर यह वरदान दे दिया। परंतु इसके परिणामस्वरूप यमलोक सुनसान होने लगा, क्योंकि गयासुर जिसको भी छूता, वह सीधे स्वर्ग चला जाता। देवताओं और यमराज के सामने यह बड़ी समस्या खड़ी हो गई। सभी देवता गण ब्रह्माजी के पास पहुँचे और इस परेशानी का हल निकालने की याचना की।
ब्रह्माजी ने देवताओं की बात को बड़े ध्यान से सुना। इसके उपरांत वो गयासुर के पास गए और एक यज्ञ करने के लिए उसका शरीर माँगा। गयासुर ने जब देखा कि सृष्टि के रचयिता स्वयं उससे यह विनती कर रहे हैं तो उसने विनम्रतापूर्वक यह मांग स्वीकार कर ली। फल्गु नदी के किनारे यज्ञ प्रारंभ हुआ और गयासुर के शरीर पर धर्मशिला रखी गई। किंतु शिला रखने के बाद भी उसका शरीर हिलता-डुलता रहा। तभी भगवान विष्णु गदाधर रूप में प्रकट हुए और उन्होंने अपना दाहिना चरण गयासुर के शरीर पर रख दिया। प्रभु के चरण स्पर्श से गयासुर स्थिर हो गया।
गयासुर ने प्रभु से प्रार्थना की, “हे नारायण! यह धर्मशिला मेरे शरीर का रूप धारण करे और युगों-युगों तक इस पर आपके चरण चिन्ह विराजमान रहें। इसी स्थान पर मैं भी सदा के लिए विद्यमान रहूँ, ताकि भक्त मेरा और आपके चरणों का एक साथ दर्शन कर सकें।” भगवान विष्णु ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।
गयासुर के नाम पर पड़ा “गया”
गयासुर को परम लोक की प्राप्ति हुई और उसके नाम से इस भूमि का नाम गया पड़ा। यहां के विष्णुपद मंदिर में आज भी धर्मशिला विद्यमान है, जिस पर भगवान विष्णु के चरण चिन्ह अंकित हैं। यह अद्वितीय स्थल विश्व का पहला ऐसा स्थान माना जाता है, जहां एक राक्षस और भगवान दोनों की पूजा साथ-साथ होती है।
गया जी का केवल पुराणों में ही नहीं, बल्कि रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में भी उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि त्रेतायुग में भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण इस स्थान पर आए थे। यहीं माता सीता ने बालू का पिंड बनाकर अपने ससुर, राजा दशरथ का पिंडदान किया था। महाभारत काल में भी पांडवों ने यहां आकर अपने पितरों का श्राद्ध किया। यही कारण है कि यह स्थल पितरों के मोक्ष का परम स्थान माना जाता है।
प्रतिवर्ष पितृपक्ष के अवसर पर गया जी में विशाल मेला लगता है। देश ही नहीं, विदेशों से भी लाखों श्रद्धालु यहां अपने पूर्वजों का तर्पण करने के लिए आते हैं। फल्गु नदी के तट पर, अक्षयवट के समीप और विष्णुपद मंदिर में पूजा करने से पितरों की आत्मा को संतोष मिलता है। यह विश्वास है कि यहां किया गया श्राद्ध अनेक पीढ़ियों तक पितरों को मोक्ष प्रदान करता है।
विष्णुपद मंदिर कसौटी पत्थरों से निर्मित है और अपनी प्राचीनता तथा भव्यता के लिए प्रसिद्ध है। इसका जीर्णोद्धार महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था। इस मंदिर में धर्मशिला विद्यमान है, जिस पर भगवान विष्णु के चरण चिन्ह अंकित हैं। इन चरण चिन्हों को देखने मात्र से भक्त को अनिर्वचनीय शांति और आध्यात्मिक अनुभूति होती है।
गया जी की विशेषता यह है कि यहां भक्त भगवान विष्णु के चरणों का दर्शन करते हैं और साथ ही गयासुर के तप और त्याग को भी स्मरण करते हैं। यह अनूठा संगम हमें यह संदेश देता है कि कोई भी प्राणी, चाहे वह राक्षस क्यों न हो, यदि सच्ची श्रद्धा और तपस्या से भगवान की शरण में आता है, तो उसे सम्मान और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
मोक्षभूमि गया जी श्रद्धा और आस्था का अनंत सागर है। यहां आकर हर भक्त अपने पितरों को स्मरण करता है, उनका तर्पण करता है और आत्मा के शुद्धिकरण का अनुभव करता है। युगों से भगवान विष्णु के चरण चिन्ह इस नगरी में विद्यमान हैं, और जब तक आस्था जीवित है, गया जी मोक्ष नगरी के रूप में पितरों का उद्धार करती रहेगी।