29 September 2023

बिना कुशा के अधूरी होती है श्राद्ध पूजा, जानें धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व

जल्द ही पितृ पक्ष आरंभ होने वाला है। इस दौरान लोग अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए पितृ तर्पण करते हैं। पूजा पाठ के द्वारा अपने पितरों की आत्मा के शांति के लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं। श्राद्ध पक्ष की पूजा में अन्य चीजों के साथ-साथ कुशा का प्रयोग भी किया जाता है। सनातन धर्म की पूजा में कुशा का विशेष महत्व माना जाता है। कुशा के बिना श्राद्ध की पूजा अधूरी मानी जाती है। पूजा के दौरान कुशा की अंगूठी बनाकर तीसरी उंगली में पहनी जाती है। जिसे पवित्री कहा जाता है।

 

धार्मिक महत्व 

सनातन धर्म के कई ग्रंथों में कुशा का महत्व बताया गया है। अथर्ववेद में कुशा का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि कुशा क्रोध को नियंत्रित करने में सहायक होता है। इसका प्रयोग पूजा पाठ के साथ-साथ औषधि के रूप में भी किया जाता है। 


कई धार्मिक किंवदंतियों में कुशा को भगवान विष्णु के जोड़कर बताया जाता है। मत्सय पुराण में कुशा का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि कुशा भगवान विष्णु के शरीर से निकली है। इसलिए इसे पवित्र माना जाता है। 


मत्स्य पुराण के अनुसार, “भगवान विष्णु ने हिरण्याक्ष का वध करने के उपरांत पृथ्वी को स्थापित किया। उसके बाद जैसे ही उन्होंने अपने शरीर में लगे पानी को झाड़ा तब उनके शरीर से बाल पृथ्वी पर गिरे। ये बाल पृथ्वी पर गिरते ही कुशा में परिवर्तित हो गए। 


इसके साथ ही ऋग्वेद में भी कुशा का उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद में अनुष्ठान और पूजा-पाठ के दौरान कुशा के आसन का इस्तेमाल का उल्लेख किया गया है। 


इसके अलावा कुशा से संबंधित एक और कहानी प्रचलित है। कहा जाता है कि जब गरुड़देव स्वर्ग से अमृत कलश लेकर आ रहे थे तब उन्होंने कुछ देर के लिए कलश को कुशा पर रख दिया था। कुशा पर अमृत का कलश रखने पर इसकी पवित्रता बढ़ गई। 

 

आध्यात्मिक महत्व

कहा जाता है कि पूजा पाठ और ध्यान के दौरान हमारे शरीर में ऊर्जा पैदा होती है। यह ऊर्जा शरीर से होते हुए जमीन में पहुंच जाती है। कुशा के आसन पर बैठकर पूजा-पाठ और ध्यान किया जाए तो वह ऊर्जा जमीन में स्थानांतरित नहीं हो पाती है। इसके साथ ही तीसरी उंगली में कुशा की अंगूठी पहनने से हाथों के द्वारा शरीर की ऊर्जा भूमि में स्थानांतरित नहीं होती।