राजस्थान की अरावली पर्वतमालाओं की गोद में बसा एक दिव्य नगर है नाथद्वारा। यह कोई सामान्य नगर नहीं, अपितु श्री नाथ जी की लीला-भूमि है। ऐसी भूमि, जहाँ हर पत्थर, हर गलियाँ और हर हवाओं में भगवान श्रीकृष्ण के बालस्वरूप की मधुर गूंज सुनाई देती है। यहां हर सुबह “जय श्री नाथ जी की” जयकारे से आरंभ होती है।
श्रीनाथजी भक्तों के जीवन के केंद्र हैं। जो एक बार नाथद्वारा आता है, वो खाली हाथ नहीं, भरी झोली और भरे हृदय के साथ घर लौटता है।
श्रीनाथ जी, भगवान श्रीकृष्ण के बालरूप हैं, जिनके एक हाथ में गोवर्धन पर्वत है और दूसरा हाथ कमर पर टिका है। यह स्वरूप उस लीला का प्रतीक है जब द्वापर युग में इन्द्र के अभिमान को चूर करने हेतु श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर ब्रजवासियों की रक्षा की थी। यही स्वरूप गोवर्धनधारी नाथ के रूप में नाथद्वारा में प्रतिष्ठित हुआ और श्रद्धालु उन्हें नाथ बाबा या श्री जी कहकर पुकारते हैं।
श्रीनाथजी की मूल मूर्ति गोवर्धन पर्वत के समीप जतिपुरा (उत्तर प्रदेश) में प्रकट हुई थी। लेकिन मुगलों के आक्रमण के समय जब मूर्ति को क्षति पहुँचने का भय हुआ, तब गौस्वामी श्री वल्लभाचार्य जी की परंपरा के सेवायतगणों ने मूर्ति को सुरक्षित स्थान पर ले जाने का निश्चय किया।
कई महीनों की यात्रा के बाद जब यह पावन मूर्ति राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में पहुंची, तो रास्ते में श्रीमूला तालाब के पास रथ का पहिया धँस गया। अनेक प्रयासों के बावजूद रथ आगे नहीं बढ़ा, तब इसे श्रीनाथजी की इच्छा माना गया और यहीं पर 1672 ई. (संवत् १७२८) में महाराणा राज सिंह द्वारा एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया। यही स्थान आज नाथद्वारा कहलाता है – अर्थात ‘नाथ का द्वारा’, भगवान के प्रवेश का द्वार।
नाथद्वारा का मंदिर वैष्णव परंपरा का अनुपम उदाहरण है। यह मंदिर न केवल स्थापत्य कला की दृष्टि से समृद्ध है, बल्कि भक्तिभाव की जीवंत मूर्ति है। यहाँ दिन में 8 झांकियाँ होती हैं – मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, संध्या आरती और शयन।
हर झांकी में श्रीनाथजी को अलग-अलग पोशाकों और आभूषणों से सजाया जाता है। हर एक झांकी एक नई लीला का दर्शन कराती है।
नाथद्वारा शहर एक जीता-जागता भक्तिसंगीत है। यहाँ की गलियाँ, मंदिर की घंटियाँ, चित्रकला, गोविंदजी की मुरली; ये सब मिलकर एक आध्यात्मिक राग रचते हैं। श्रीनाथजी के सेवाकार्य पूरी तरह से वल्लभ संप्रदाय द्वारा संचालित होते हैं। यह संप्रदाय मानता है कि भगवान की सेवा करना, उन्हें भोजन कराना, वस्त्र पहनाना, संगीत सुनाना; ये सब भगवान से प्रेम की उच्चतम अभिव्यक्तियाँ हैं।
नाथद्वारा का वातावरण पूरी तरह कृष्णमय है। यहां की गलियों में घूमते ही एक अलग प्रकार की ऊर्जा का अनुभव होता है। जैसे स्वयं श्रीकृष्ण गोपियों संग रास रचा रहे हों। बाजारों में बिकती श्रीनाथजी की मूर्तियाँ, मंदिर के पास प्रसाद की कतारें, पिचवई चित्रों की दुकाने; सब कुछ एक आध्यात्मिक मेले की अनुभूति कराते हैं। यहाँ की विशेषता है, ‘अन्नकूट उत्सव’, जब हजारों प्रकार के व्यंजन भगवान को अर्पित किए जाते हैं। उस दिन मंदिर में केवल महाप्रसाद की महक होती है और भक्तों का सैलाब उमड़ पड़ता है।
नाथद्वारा पिचवई चित्रकला के लिए भी प्रसिद्ध है। यह एक प्रकार की पारंपरिक चित्रकला है जो श्रीनाथजी की झांकियों, ऋतुओं और त्योहारों पर आधारित होती है। कपड़े पर हाथ से बनाई गई ये कलाकृतियाँ विश्वभर में प्रसिद्ध हैं। जो मंदिर के निकट बाजार में आसानी से मिल जाती हैं। यह कलाकृतियाँ भक्ति की अभिव्यक्ति है। हर रंग और हर चित्र में कलाकारों का भगवान कृष्ण के प्रति प्रेम समाया होता है।
जन्माष्टमी का पर्व नाथद्वारा में अत्यंत धूमधाम और भक्ति के साथ मनाया जाता है। इस दिन पूरा शहर श्री कृष्ण के जन्मोत्सव की खुशी में डूब जाता है। मंदिर को विशेष रूप से फूलों और रोशनी से सजाया जाता है, और भक्त रात भर जागकर भगवान के जन्म का बेसब्री से इंतजार करते हैं। आधी रात को जब श्री कृष्ण का जन्म होता है, तो पूरा मंदिर परिसर “नंद घर आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की” के जयकारों से गूंज उठता है। इस अवसर पर विशेष झाँकियाँ सजाई जाती हैं, और भक्त नृत्य व संगीत के माध्यम से अपनी खुशी व्यक्त करते हैं। यह दिन नाथद्वारा के आध्यात्मिक वातावरण को और भी अधिक दिव्य बना देता है।
हर वर्ष लाखों श्रद्धालु नाथद्वारा आते हैं। कोई पैदल आता है, कोई दंडवत प्रणाम करते हुए, तो कोई परिवार सहित अपनी मन्नतें लेकर। यहाँ आने वालों को किसी बड़े आश्वासन की आवश्यकता नहीं होती। श्रीनाथजी की एक झलक ही उनके जीवन की सारी बाधाओं को हर लेती है। यहाँ रथ यात्रा, गोपाष्टमी, जन्माष्टमी और दिवाली पर विशेष उत्सव मनाए जाते हैं। इन पर्वों पर पूरे नगर को ऐसे सजाया जाता है जैसे द्वारका पुनः जीवित हो गई हो।
नाथद्वारा आने का अनुभव केवल मंदिर देखने भर का नहीं होता, यह एक आत्मिक यात्रा है। यहाँ आकर लोग खुद से मिलते हैं, ईश्वर से संवाद करते हैं, और अपने अंदर के भावों को स्पर्श करते हैं। नाथद्वारा के बारे में कहा जाता है, “नाथद्वारा में सिर्फ दर्शन नहीं होते, वहाँ दृष्टि मिलती है, जो जीवन का मार्ग दिखा देती है।”
नाथद्वारा एक ऐसा तीर्थ है जहाँ श्रीनाथजी के रूप में प्रेम की एक जीवंत कड़ी उपस्थित है। यह नगर, यह मंदिर, ये गलियाँ, यहाँ की हवा; सब कुछ जैसे भक्त के हृदय को श्रीकृष्ण के प्रेम में डुबो देती हैं।
अगर आपने जीवन में श्रीनाथजी के दर्शन नहीं किए हैं, तो समझिए आपकी आत्मा अब भी उस मधुर पुकार की प्रतीक्षा कर रही है –
आओ वल्लभकुंज में, नाथ तुम्हें बुला रहे हैं।