सनातन धर्म की दिव्य परंपराओं में मोहिनी एकादशी का अत्यंत विशिष्ट स्थान है। यह एकादशी वैशाख मास के शुक्ल पक्ष के ग्यारहवें दिन आती है। इस एकादशी को मोह को हरने वाली व आत्मा को परमात्मा से जोड़ने वाली तिथि माना गया है।
‘मोहिनी‘ नाम स्वयं दर्शाता है – जो मोह, भ्रम, वासना, लोभ और अहंकार जैसे मायाजाल को हर लेती है। इस पावन तिथि पर भगवान श्रीहरि विष्णु की मोहिनी रूप में उपासना करने से मानव जीवन के समस्त बंधनों से मुक्ति प्राप्त होती है और सद्गति का मार्ग प्रशस्त होता है।
मोहिनी एकादशी का महत्व
पुराणों में वर्णित है कि जब समुद्र मंथन से अमृत निकला, तब देवों और दानवों में उसे पाने का संघर्ष आरंभ हो गया। तब भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर देवताओं को अमृत प्रदान किया और सृष्टि के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। यह वही मोहिनी रूप है, जो असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक बना।
धार्मिक मान्यता यह है कि
दान और सेवा
हिन्दू धर्म में दान को जीवन का अभिन्न अंग माना गया है। शास्त्रों में वर्णित है—
दानं तपः समं नास्ति न दानात् परमं सुखम्।
दान और तप से बढ़कर कोई धर्म नहीं है, और दान से बढ़कर कोई सुख नहीं है।
मोहिनी एकादशी केवल व्रत-पूजा का ही दिन नहीं, अपितु यह दिन करुणा, दया और सेवा के भाव को आत्मसात करने का अवसर है। दीन-हीन, गरीब, असहाय, अनाथ और दिव्यांग जनों की सेवा इस दिन भगवान विष्णु की विशेष कृपा का माध्यम बनती है।
कूर्मपुराण में कहा गया है-
स्वर्गायुर्भूतिकामेन तथा पापोपशान्तये।
मुमुक्षुणा च दातव्यं ब्राह्मणेभ्यस्तथाअवहम्।।
अर्थात् स्वर्ग, दीर्घायु तथा ऐश्वर्य के अभिलाषी और पाप की शांति तथा मोक्ष की प्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति को ब्राह्मणों और पात्र व्यक्तियों को भरपूर दान करना चाहिए।
इस मोहिनी एकादशी के पावन अवसर पर दान देकर दीन-हीन, दिव्यांग व असहाय बच्चों को वर्ष में एक बार आजीवन भोजन कराएं और भगवान श्रीहरि विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त करें।