सनातन धर्म के व्रत और त्योहारों में एकादशी को सबसे विशेष माना गया है। हिंदू पंचांग की ग्यारहवीं तिथि को एकादशी कहा जाता है | प्रत्येक मास में दो एकादशी होती है पहली पूर्णिमा के बाद और दूसरी अमावस्या के बाद | कृष्ण पक्ष की एकादशी पूर्णिमा के बाद आती है और शुक्ल पक्ष की एकादशी अमावस्या के बाद आती है। इस प्रकार एक वर्ष में कुल 24 एकादशी आती है और सभी का अलग अलग और कुछ खास महत्व होता है। एकादशी पर उपवास करना सनातन संप्रदाय में महत्वपूर्ण और अति उत्तम माना जाता है। वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को वरुथिनी एकादशी कहा जाता है। माना जाता है वरुथिनी एकादशी पर व्रत और दान करने से व्रती को श्री हरी का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
वरुथिनी एकादशी पौराणिक कथा।
मान्यतानुसार भगवान शिव ने क्रोधावस्था में ब्रम्हा जी का पांचवा सर काट कर धड़ से अलग कर दिया था इसलिए उन्हें इस पाप को करने का श्राप लग गया था। भगवान शिव ने अपने श्राप से मुक्ति पाने के लिए वरुथिनी एकादशी का व्रत किया था जिससे उन्हें अपने पाप और श्राप से मुक्ति प्राप्त हुई थी।
मान्यता यह भी है कि एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी के महत्व और इसकी व्रत की कथा को सुनने का निवेदन किया। इसके बाद युधिष्ठिर को भगवान कृष्ण ने कथा सुनाते हुए कहा कि प्राचीन काल में नर्मदा नदी के तट पर मांधाता नामक राजा का राज्य था। राजा धार्मिक विचारों के साथ दान करने में रूचि रखता था और हमेशा पूजा पाठ और ध्यान में लीन रहता था। एक बार राजा जंगल में तपस्या कर रहा था, तभी अचानक से वहां पर एक भालू आया और उसने राजा के पैर को काटा और खाने लगा राजा घायल होने लगा और आत्म रक्षा करने में पूरी तरह से असमर्थ हो गया परन्तु राजा भयभीत नहीं हुआ और कष्ट सहते हुए भी अपनी तपस्या में लीन रहा। भालू राजा के पैर को चबाते हुए घसीटकर पास के जंगल में ले गया तब राजा ने अपनी रक्षा के लिए भगवान विष्णु से प्रार्थना की। राजा की पुकार सुनकर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से भालू को मारकर राजा को बचा लिया पर तब तक भालू राजा का पैर खा चूका था। राजा ने जब अपना पैर देखा तो वह काफी दुखी हुआ और उसने भगवान से पूछा कि शारीरिक और मानसिक कष्ट से कैसे छुटकारा पाया जाए प्रभु। तब भगवान ने कहा ‘हे वत्स! यह तुम्हारे पूर्व जन्म का अपराध था। अब शोक मत करो। तुम मथुरा जाकर श्रद्धापूर्वक वरूथिनी एकादशी का व्रत रखकर मेरे वराह अवतार की पूजा करों। इस व्रत के प्रभाव से एक बार फिर पहले की तरह सुदृढ़ अंगो वाले हो जाओगे।’ भगवान की बात सुनकर राजा ने भगवान को प्रणाम किया फिर राजा ने मथुरा जाकर वहां पर भगवान की श्रद्धा पूर्वक आराधना की। इस व्रत के प्रभाव से राजा को अपना पैर और हर तरह के दुखों से छुटकारा मिल गया। जिस तरह से वरुथिनी एकादशी व्रत के प्रभाव से राजा मधांता को कष्टों से मुक्ति प्राप्त हुई उसी प्रकार से यह व्रत भक्तों को कष्टों से मुक्ति दिलाने वाला और मोक्ष प्रदान करने वाला व्रत माना जाता है और इस दिन व्रत रखकर इस कथा का पाठ किया जाता है।
वरुथिनी एकादशी पर व्रत और दान का महत्त्व।
धर्मशास्त्रों में विभिन्न प्रकार के व्रत और उपवास बताए गए है जिसमें एकादशी के व्रत को सबसे अहम् माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार शरीर और मन को संतुलित करने के लिए और ख़ास तौर से गंभीर रोगों से बचाव के लिए व्रत और उपवास के नियम बनाये गए हैं।
मान्यतानुसार वरुथिनी एकादशी के दिन व्रत रखना, श्रद्धा भाव से भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी का पूजन करना और एकादशी कथा का पाठ करना विशेष रूप से फलदायी होता है। ऐसा करने से साधक के मन को शांति और सुकून मिलता है। उसे अच्छा सौभाग्य और मृत्यु के उपरांत बैकुंठ की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार इस दिन अन्नदान करना भी महान और पुण्यकारी माना जाता है। जैसा की शास्त्रों में कहा गया है कि हाथी का दान घोड़े के दान से श्रेष्ठ है। हाथी के दान से भूमि दान, भूमि के दान से तिलों का दान, तिलों के दान से स्वर्ण का दान तथा स्वर्ण के दान से अन्न का दान श्रेष्ठ है। अन्न दान के बराबर कोई दान नहीं है। अन्नदान से देवता, पितर और मनुष्य तीनों तृप्त हो जाते हैं। शास्त्रों में इसको कन्यादान के बराबर माना है। इस दिन किया गया व्रत और अन्नदान साधक को पापों से मुक्ति दिलाता है, सभी मनोकामनाओं की पूर्ति करता है साथ ही उसके सभी कष्टों का निवारण हो जाता है। भगवान की कृपा हमेशा साधक पर बनी रहती हैं और खूब सारा नाम यश भी प्राप्त होता है।