08 May 2024

Parshuram Jayanti 2024: इसलिए भगवान परशुराम ने कर दिया था अपनी माता का वध

परशुराम भगवान विष्णु के छठवें अवतार हैं, उन्हें भगवान नारायण का आदेशावत्रा भी कहा जाता है। कई ग्रंथों में परशुराम को भगवान विष्णु और शिव का संयुक्त अवतार बताया गया है। शिव से उन्होंने संहार की शिक्षा प्राप्त की और भगवान विष्णु से उन्होंने पालन के गुण सीखे हैं। भगवान परशुराम का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण, कल्कि पुराण, हरिवंश पुराण, अध्यात्म रामायण आदि में मिलता है। 

अध्यात्म रामायण में भगवान परशुराम का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जब राक्षसों ने क्षत्रियों का रूप धारण करके इस पृथ्वी पर उत्पात मचाना प्रारंभ कर दिया तब भगवान विष्णु ने परशुराम का अवतार लेकर दुष्ट राक्षसों को कई बार मारा और उनके भार से इस धरती को मुक्त किया। 

 

भगवान परशुराम का जन्म (Birth of Lord Parshuram) 

स्कंद पुराण के अनुसार, भगवान परशुराम वैशाख शुक्ल तृतीया को रेणुका के गर्भ से अवतीर्ण हुए थे। इसलिए वैशाख शुक्ल तृतीया पर (जिसे अक्षय तृतीया के नाम से जाना जाता है) परशुराम जयंती मनाई जाती है। भगवान परशुराम का जन्म आज से  लगभग 8 लाख 75 हजार 7 सौ साल पूर्व त्रेता युग के 19वें भाग में हुआ था।

भगवान परशुराम के जन्मस्थानों के बारे में विद्वानों के अलग-अलग मत हैं जो भिन्न-भिन्न जगहों को भगवान परशुराम का जन्मस्थान बताते हैं। लेकिन उनमें से ज्यादातर विद्वानों द्वारा मध्य प्रदेश में इंदौर के निकट जानपाव पर्वत को भगवान परशुराम की जन्मस्थली माना गया है। परशुराम के पिता का नाम महर्षि जमदग्नि था।  

 

भगवान परशुराम के नाम (How Bhagwan Parshuram got his name ‘Parshuram’) 

भगवान परशुराम के बचपन का नाम रामभद्र था, यह नाम उनके माता-पिता ने रखा था। इसके अलावा महर्षि कण्व ने जन्म के समय उनका नाम कोटिकर्ण रखा था। वैसे भगवान परशुराम का मूल नाम राम था, इसका उल्लेख महाभारत और विष्णु पुराण में मिलता है। लेकिन जब बाद में भगवान शिव द्वारा उन्हें  परशु नामक अस्त्र प्रदान किया गया तो उनका नाम परशुराम हो गया।

इसके अलावा पद्म पुराण में भगवान परशुराम के अन्य नामों का उल्लेख मिलता है जो भगवान विष्णु के सहस्त्रनामों से मेल खाते हैं। भगवान परशुराम के अन्य नाम हैं –  (Other names of Bhagwan Parshuram)

जमदग्नि कुलादित्य, रेणुकादभुत शक्तिकृत, मातृहत्यादिनिर्लेप, स्कन्दजित, विप्रराज्यप्रद, सर्वक्षत्रान्तकृत, वीरदर्पहा, कार्तावीर्यजित सप्तद्वीपावतीदाता, शिवार्चकयशप्रद, भीम, शिवाचार्य विश्वभुक, शिवखिलज्ञान कोष, भीष्माचार्य, अग्निदैवत, द्रोणाचार्य, गुरुविश्वजैत्रधन्वा, कृतान्तजित, अद्वितीय तपोमूर्ति, ब्रह्मचर्येक दक्षिण।

 

शिक्षा दीक्षा 

परशुराम मूल रूप से ब्राह्मण थे। उन्होंने अपने बाबा महर्षि ऋचिक और पिता महर्षि जमदग्नि से वेद और धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की थी। इसके अलावा परशु चलाने की शिक्षा भगवान शंकर के सान्निध्य में इन्होंने गणेश जी से प्राप्त की थी। यह दिव्यास्त्र उन्होंने भगवान शंकर से ही प्राप्त किया था। परशु शिव जी के उसी महातेज से निर्मित हुआ था जिससे सुदर्शन चक्र और देवराज इंद्र का वज्र बना था। भगवान परशुराम रुरु नामक मृग का चर्म धारण करते थे। इसके अतिरिक्त वो कंधे पर धनुष-बाण एवं हाथ में परशु लेकर चलते थे। परशुराम एक महान गुरु थे। इतिहास में  भीष्म, द्रोण व कर्ण जैसे महायोद्धा उनके शिष्य रहे हैं। 

 

भगवान परशुराम ने अपनी माता का वध क्यों किया था? (Why did Lord Parshuram kill his mother?)

इसका उल्लेख श्रीमद्भागवत पुराण में मिलता है। एक दिन परशुराम की माता गंगाजल लेने के लिए गंगा नदी के तट पर गईं। जिस समय रेणुका गंगा से जल भर रही थीं उसी समय गंधर्व मृतिकावत के पुत्र राजा चित्ररथ गंधर्वराज का जलयान वहां रुका। चित्ररथ अपनी अप्सराओं के साथ वहां जल क्रीड़ा करने लगे। रेणुका के दिमाग में विचार आया कि यह लोग स्नान करके चले जाएं तो मैं पूजा और संध्या के लिए स्वच्छ जल लेकर आश्रम को जाऊं। इक्ष्वाकु क्षत्रिय वंशी होने के कारण रेणुका के विचारों में स्वच्छंदता थी। उसे भार्गवों के द्वारा निर्मित नीति पंथ का ज्ञान नहीं था। उनके मन में विचार आने लगा कि वह भी राजकुमारी थी और अगर उसका विवाह भी किसी राजकुमार से हुआ होता तो वह भी इसी प्रकार जल क्रीड़ा और अन्य राजकुमारियों की तरह मनोरंजन कर सकती थी। 

मानसिक विकार आ जाने की वजह से रेणुका का चित्त स्थिर नहीं हो पा रहा था। जिससे वो पात्र में जल नहीं भर पाईं। वह देर शाम बिना जल लिए ही गीले वस्त्रों के साथ आश्रम वापस आ गईं। इस समय सूर्य अस्त हो चुका था। उन्हें इस रूप में देखकर महर्षि जमदग्नि ने अपनी योग विद्या से सब जान लिया। वो क्रोधित हो  गए। उन्होंने कहा, “अब तुम्हारा चित्त दूसरे पुरुष में लग गया है। अब तुम मेरी अर्धांगिनी होने का अधिकार खो बैठी हो।”

उन्होंनें कहा, “ब्राह्मण का शरीर कठोर तप और साधना के लिए है। यह शरीर क्षुद्र सांसारिक काम के लिए नहीं है।” इस पर रेणुका ने कहा, “मेरे हृदय में केवल आपकी छवि रहती है। मेरे मन में आपके अलावा किसी अन्य का विचार आता ही नहीं है। मेरे मन में जो था वह मैंने आपको कह दिया है। अब धर्म के अनुसार जो उचित है, आप वह निर्णय करें।”

इस पर महर्षि जमदग्नि ने क्रोधित होकर एक-एक करके अपने चारों अग्रज पुत्रों से रेणुका का वध करने को कहा। लेकिन सभी पुत्रों ने ऐसा करने से मना कर दिया। इसके बाद उन्होंने परशुराम से भी यही बात कही। और उन्होंने अपने अग्रज पुत्रों के द्वारा आदेश की अवज्ञा करने पर उनका भी वध करने के लिए कहा। इस पर परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए बिना किसी विलंब के अपनी माता और चारों भाइयों के सिर काटकर धड़ से अलग कर दिए। इस पर महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने परशुराम से वर मांगने को कहा। 

परशुराम ने कहा, “मेरी माता और भाई जीवित हो जाएं और उन्हें मेरे द्वारा उनका वध किए जाने की याद न रहे। उनके सभी मानस पाप नष्ट हो जाएं। मैं लंबी आयु प्राप्त करूं और युद्ध में मेरा सामना करने वाला कोई न रहे।”

महर्षि जमदग्नि ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा ऐसा ही होगा। महर्षि ने परशुराम को स्वच्छंद मरण का आशीर्वाद प्रदान किया और उनकी माता और भाईयों को जीवित कर दिया। 

 

क्षत्रियों के विनाश की कथा (Story of the destruction of the Kshatriyas)

कहा जाता है कि परशुराम ने इस धरती को 21 बार क्षत्रियों से मुक्त किया था। एक बार, हैहय वंश के राजा कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम के पिता महर्षि जमदग्नि के आश्रम पर आक्रमण किया और उनकी हत्या कर दी। उनके मृत्यु के पश्चात रेणुका भी महर्षि जमदग्नि के साथ सती हो गईं। इस घटना ने परशुराम को हिलाकर रख दिया। क्रोध और प्रतिशोध की आग में जलते हुए, उन्होंने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियों से मुक्त करने का संकल्प लिया।

अपने फरसे को धारण कर, परशुराम ने क्षत्रियों का वध करना शुरू कर दिया। क्षत्रियों के रक्त से उन्होंने पांच सरोवर भर दिए। हरियाणा के कुरुक्षेत्र में यह स्थान समन्तपंचक के नाम से प्रसिद्ध है।

महर्षि ऋचिक परशुराम के दादा थे। वे इस भयानक रक्तपात को देखकर विचलित हो गए। उन्होंने परशुराम को यह रक्तपात बंद करने के लिए कहा। महर्षि ऋचिक के उपदेशों ने परशुराम को प्रभावित किया। उन्होंने क्षमा का मार्ग अपनाया और क्षत्रियों के प्रति अपनी कटुता त्याग दी। उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया और जीती गई पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी।

शस्त्र त्याग कर, भगवान परशुराम महेंद्र पर्वत पर चले गए। वहां वो आश्रम बनाकर रहने लगे और आध्यात्मिक ज्ञान में लीन हो गए।