06 March 2024

Maha Shivratri 2024
महाशिवरात्रि पर विशेष : भगवान शिव की दिव्यता का महापर्व

इस ब्रह्मांड के कण-कण में भगवान शिव व्याप्त हैं। देवाधिदेव महादेव पूरी तरह से विश्व के कल्याण के लिए समर्पित हैं। उन्होंने इस जगत के साथ देवताओं के कल्याण के लिए कंठ में विष धारण किया, जिससे उन्हें नीलकंठ कहा गया। भगवान शिव ने कई बार दानवों का दमन किया और इस ब्रह्मांड में शांति की स्थापना की। महादेव इस जगत में समन्वय, सहिष्णुता, प्रेम, शान्ति और कल्याण के आधारभूत स्तम्भ हैं। इसलिए उन्हें सनातन परंपरा के पुराणों में समस्त भावों के बीच सामंजस्य बैठाने वाले भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। भगवान शिव महातपस्वी समाधिस्थ हैं जो भोग-सुविधाओं से परे, गृहस्थी के प्रपंचों से दूर एक महायोगी हैं।

महादेव अपने कंठ पर भयंकर सर्प और मस्तक पर सौम्य चन्द्रमा को धारण करने वाले हैं। ये दोनों ही उनकी शोभा बढ़ाते हैं। इसके साथ ही उनकी जटाओं पर हिम शीतल गंगा विद्यमान है और मस्तक पर प्रलयकालीन अग्नि का तेज है। शिव प्रेम स्वरूप हैं, कल्याण स्वरूप हैं इसलिए उन्हें भोले भंडारी कहा जाता है। वह अपने विरोधियों को भी बड़ी सौम्यता से स्वीकार करते हैं। यदि कोई व्यक्ति इस जगत में महादेव को प्रसन्न कर लेता है तो उसे उसका पारितोषिक मिलना तय है।

वर्तमान दिनों में पर्यावरण संरक्षण एक ज्वलंत समस्या है। देवाधिदेव महादेव प्राकृतिक संतुलन के महानतम देवता हैं। वो हिमालय की वादियों में धैर्य और दृढ़ता के साथ प्रकृति की गोद में बसे हुए हैं। प्राकृतिक परिवेश में जीने का सुकूनदायी एहसास महादेव को हमारे लिए और भी अद्भुत बनाता है। अक्सर देखा जाता है कि भागवान शिव के अर्धनारीश्वर स्वरूप की पूजा की जाती है। यह स्वरूप सामाजिक संतुलन का बेजोड़ उदाहरण है। इस अद्भुत परिकल्पना में भगवान शिव को माता पार्वती के साथ चित्रित किया गया है।

वैदिक दर्शन में विस्तार से भगवान शिव के अर्धनारीश्वर स्वरूप का वर्णन मिलता है। महादेव का यह स्वरूप एक ऐसा तत्व दर्शन है जिसमें सभी प्रकार के दिव्य संतुलन व समन्वय स्वयं निहित हैं। भगवान शिव के मस्तक पर सुशोभित चंद्रमा उनके मन की मुदितावस्था का प्रतीक है। इसलिए भगवान शिव को भालचंद्र के नाम से भी जाना जाता है। चंद्रमा शीतलता का प्रतीक है, भगवान शिव के मस्तक पर सुशोभित चंद्रमा दिमाग को हमेशा ठंडा व शांत रखने के लिए प्रेरित करता है। भगवान शिव की जटाओं से निकलती हुई गंगा लोगों के जीवन में ज्ञान की गंगा का प्रतिनिधित्व करती है।

समुद्र मंथन से निकले हुए विष का सेवन भगवान शिव ने ही किया था। शिव ने विष धारण करके जगत को यह संदेश दिया था कि अपने जीवन में बुराइयों को अपने ऊपर हावी न होने दें। इसके साथ ही उनके शरीर पर लगी हुई भस्म परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको ढालने का संदेश देती है।

इस संसार में तीन तरह की प्रवृत्तियां होती हैं। जिन्हें सत, रज और तम के नाम से जाना जाता है। ये तीनों प्रवृत्तियां मनुष्यों में पाई जाती हैं। भगवान शिव के त्रिशूल के नुकीले सिरे इन तीनों प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अपने हाथों में धारण किए हुए त्रिशूल के माध्यम से भगवान शिव प्राणियों को संदेश देते हैं कि इन गुणों पर हमारा पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए। भगवान नीलकंठ के वाहन नंदी को पुरुषार्थ का प्रतीक माना जाता है। तांडव नृत्य करते समय बजने वाला डमरू भी एक विशिष्ट स्थान रखता है। कहा जाता है कि ब्रह्मांड में गूंजने वाले नाद का स्वर शिव के डमरू से ही निकला है। भगवान शिव तब तांडव नृत्य करते हैं जब प्रलय के बाद सारा ब्रह्मांड श्मशान में बदल जाता है। नृत्य के समय बजाए जाने वाले डमरू की ध्वनि से ब्रह्मांड के कण-कण में क्रियाशीलता जागृत होती है और सृष्टि का नव निर्माण प्रारंभ होता है।

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार, वर्ष में कुछ खास समय और खास दिन होते हैं जो आध्यात्मिक उन्नति और ध्यान करने के लिए सबसे उत्तम माने जाते है। महाशिवरात्रि उन्ही में से एक है। कहा जाता है कि इस दिन ब्रह्माण्डीय चेतना लोगों के मन को स्पर्श करती है। इसलिए महाशिवरात्रि का यह उत्सव लोगों के जीवन में विशेष महत्व रखता है। यह भौतिकता और अध्यात्म के विवाह का समय है।